रत्नों की उपयोगिता का उल्लेख पुराणों में भी मिलता है। समुद्र मंथन के समय बहुत सी चीजें बाहर निकली थी जिनमें 14 रत्न भी थे। इन चौदह रत्नों में नौ रत्न अत्यंत महत्व रखते हैं। प्राचीन समय में नवरत्नों को केवल राजा-महाराजा तथा उच्चवर्गीय लोग ही धारण करते थे। राज ज्योतिषी राजाओं के भविष्य को बली करने के लिए रत्न पहनने की सलाह देते थे। सभी नौ रत्न अलग-अलग बातों के लिए धारण किए जाते हैं और राजाओं को सर्वगुण संपन्न बनाने के लिए सभी नौ रत्नों को धारण करने की सलाह दी जाती थी।
वर्तमान समय में रत्नों को धारण करने का सिलसिला काफ़ी जोर पकड रहा है। प्राचीन समय में रत्नों को धारण करने के लिए किसी विशेष अंगुली का विचार नहीं किया जाता था। रत्न कोई भी हो उसे केवल अनामिका अंगुली में धारण किया जाता था क्योंकि सभी धार्मिक कार्यों को करने के लिए अनामिका अंगुली का ही उपयोग किया जाता है।
धीरे-धीरे रत्नों को धारण करने के लिए हर रत्न को हाथ की विशेष अंगुली से जोड दिया गया। जैसे – सूर्य, मंगल और केतु से संबधित रत्न को अनामिका अंगुली में धारण किया जाता है। चन्द्र और बुध के रत्नो को सबसे छोटी अंगुली में धारण किया जाता है। शुक्र, शनि तथा राहु के रत्नों को मध्यमा अंगुली में धारण किया जाता है। गुरु से संबंधित रत्न को हाथ की तर्जनी अंगुली में धारण किया जाता है।
रत्न को धारण करने के कुछ नियम भी हैं जिनका पालन करते हुए ही उन्हें धारण करना चाहिए। वैसे तो जिस ग्रह को पीडा पहुंच रही हो उसी से संबंधित रत्न धारण करने की सलाह दी जाती है लेकिन रत्नों को ज्योतिषी के परामर्श से ही पहनना चाहिए। जन्म कुंडली में शुभ ग्रह निर्बल अवस्था में स्थित है तो पीडित ग्रह का रत्न धारण करने से राहत मिल सकती है। जैसे लग्न का स्वामी ग्रह पीडित हो तब व्यक्ति में आत्मविश्वास की कमी होती है और बिमारियों से लडने की क्षमता ज्यादा नहीं होती तब ऐसी स्थिति में लग्न के स्वामी ग्रह को बली बनाने के लिए उसके रत्न को पहनाने का परामर्श दिया जा सकता है।
रत्नों को धारण करने के कुछ नियम भी निर्धारित किए गए हैं उन्हीं के आधार पर रत्नों को धारण किया जाना चाहिए अन्यथा शुभ फ़ल प्राप्त नहीं होगें। हर ग्रह का संबध किसी ना किसी वार से होता है और प्रतिदिन क्रमानुसार वारों की होरा भी होती है। यदि रत्न धारण करना आवश्यक है तो ग्रह संबंधी होरा में पहना जा सकता है। जिस ग्रह का रत्न धारण करना है उस ग्रह के गोचर को देखना भी आवश्यक है। यदि रत्न संबंधित ग्रह गोचर में नीच राशि में और नवांंश में भी नीच राशि में ही स्थित है तब उसका रत्न धारण नहीं करना चाहिए।
यदि गोचर का कोई ग्रह नीच राशि से गुजर रहा है और उसका रत्न धारण करना आवश्यक है तब उस ग्रह के नवांश में उच्च का होने पर रत्न धारण किया जा सकता है क्योंकि कई बडे ग्रह ऐसे हैं जो काफ़ी समय तक एक ही राशि में रहते हैं। जैसे शनि ढाई साल तक एक राशि में रहता है, गुरु एक राशि में तकरीबन 13 महीने रहता है इसलिए इन ग्रहों का रत्न धारण करने के लिए ग्रहों की नवांश में स्थिति देखी जाती है। अगर ग्रह नवांंश में शुभ वर्गों में स्थित है तब भी उसका रत्न धारण किया जा सकता है।
रत्न धारण करने के लिए कुछ बातों पर ध्यान देना जरुरी है कि रत्न कब और कैसे धारण किए जाए साथ ही कुंडली के अनुसार किन भावों के स्वामी है? यह भी देखा जाना जरुरी है। रत्न धारण करने में विभिन्न धारणाएंं है। जैसे कई ज्योतिषी कुंडली के जिस भाव की दशा चल रही होती है उसी का रत्न पहनने की सलाह दे देते हैं जबकि कई ज्योतिषी कुंडली के शुभ भावों के स्वामी का रत्न धारण करने की सलाह देते हैं। जैसे जन्म कुंडली के शुभ भाव का स्वामी अशुभ भाव में है या बलहीन है तब उसका रत्न पहनने की सलाह दी जाती है।
हमारे मतानुसार भी केन्द्र व त्रिकोण के स्वामी यदि कमजोर है तब उनके स्वामी ग्रह का रत्न शुभ समय में धारण करना चाहिए। कई बार केन्द्र व त्रिकोण के स्वामी एक अशुभ तो एक शुभ भाव के स्वामी हो जाते हैं। जैसे कुंभ लग्न में शनि लग्न व द्वादश भाव का स्वामी हो जाता है तब यह निश्चित करना मुश्किल होता है कि शनि का रत्न धारण किया जाए या नहीं। कई लोगों का मत है कि लग्न का स्वामी सदा शुभ होता है इसलिए रत्न धारण कर लेना चाहिए तो दूसरी ओर कुछ ज्योतिषियों का मत है कि पहले ये तय करें कि ग्रह की मूल त्रिकोण राशि किस भाव में पड रही है। यदि ग्रह की मूल त्रिकोण राशि शुभ भाव में पड रही है तो उसका रत्न धारण कर लेना चाहिए।
कुछ ज्योतिषियों का एक मत यह भी है कि यदि ग्रह की एक राशि शुभ भाव में और एक अशुभ भाव में पड रही है तब संबंधित ग्रह का उपरत्न धारण किया जा सकता है जिससे जातक को अनुकूल फ़ल ही मिलेगें। रत्नों को धारण करने से पूर्व उन्हें अभिमंत्रित करना जरुरी है। जिस ग्रह का रत्न पहनना है उसे उस ग्रह के वार में ही पहनना चाहिए। रत्न को शुक्ल पक्ष में ही धारण किया जाना चाहिए। अमावस्या के अगले दिन से शुक्ल पक्ष का आरंभ हो जाता है जो पूर्णिमा तक चलता है।
रत्न धारण करने के लिए संबधित ग्रह के वार का चयन करें। जैसे किसी को चंद्रमा के लिए मोती पहनना है तो वह मोती को शुक्ल पक्ष में सोमवार के दिन अथवा पूर्णिमा के दिन सुबह सूर्योदय से लेकर आने वाले एक घंटे के मध्य धारण करे। माना सूर्योदय सुबह 06:15 पर हो रहा है तब 06:15 से लेकर 07:15 के मध्य मोती पहन लेना चाहिए। लाकेट अथवा अंगूठी के रुप में यह रत्न धारण किए जाते हैं। धारण करने से पूर्व सुबह उठकर स्नानादि करने के बाद स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए। फ़िर रत्न का षोडपचार करते है उसके बाद जिस ग्रह का रत्न धारण करते हैं उस ग्रह के मंत्र का 108 बार जाप किया जाता है फ़िर मन में अच्छी धारणा रखते हुए रत्न धारण कर लेना चाहिए।
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