रत्नों की उपयोगिता | Importance Of Gemstone

stones

रत्नों की उपयोगिता का उल्लेख पुराणों में भी मिलता है। समुद्र मंथन के समय बहुत सी चीजें बाहर निकली थी जिनमें 14 रत्न भी थे। इन चौदह रत्नों में नौ रत्न अत्यंत महत्व रखते हैं। प्राचीन समय में नवरत्नों को केवल राजा-महाराजा तथा उच्चवर्गीय लोग ही धारण करते थे। राज ज्योतिषी राजाओं के भविष्य को बली करने के लिए रत्न पहनने की सलाह देते थे। सभी नौ रत्न अलग-अलग बातों के लिए धारण किए जाते हैं और राजाओं को सर्वगुण संपन्न बनाने के लिए सभी नौ रत्नों को धारण करने की सलाह दी जाती थी।

वर्तमान समय में रत्नों को धारण करने का सिलसिला काफ़ी जोर पकड रहा है। प्राचीन समय में रत्नों को धारण करने के लिए किसी विशेष अंगुली का विचार नहीं किया जाता था। रत्न कोई भी हो उसे केवल अनामिका अंगुली में धारण किया जाता था क्योंकि सभी धार्मिक कार्यों को करने के लिए अनामिका अंगुली का ही उपयोग किया जाता है।

धीरे-धीरे रत्नों को धारण करने के लिए हर रत्न को हाथ की विशेष अंगुली से जोड दिया गया। जैसे – सूर्य, मंगल और केतु से संबधित रत्न को अनामिका अंगुली में धारण किया जाता है। चन्द्र और बुध के रत्नो को सबसे छोटी अंगुली में धारण किया जाता है। शुक्र, शनि तथा राहु के रत्नों को मध्यमा अंगुली में धारण किया जाता है। गुरु से संबंधित रत्न को हाथ की तर्जनी अंगुली में धारण किया जाता है।

रत्न को धारण करने के कुछ नियम भी हैं जिनका पालन करते हुए ही उन्हें धारण करना चाहिए। वैसे तो जिस ग्रह को पीडा पहुंच रही हो उसी से संबंधित रत्न धारण करने की सलाह दी जाती है लेकिन रत्नों को ज्योतिषी के परामर्श से ही पहनना चाहिए। जन्म कुंडली में शुभ ग्रह निर्बल अवस्था में स्थित है तो पीडित ग्रह का रत्न धारण करने से राहत मिल सकती है। जैसे लग्न का स्वामी ग्रह पीडित हो तब व्यक्ति में आत्मविश्वास की कमी होती है और बिमारियों से लडने की क्षमता ज्यादा नहीं होती तब ऐसी स्थिति में लग्न के स्वामी ग्रह को बली बनाने के लिए उसके रत्न को पहनाने का परामर्श दिया जा सकता है।

रत्नों को धारण करने के कुछ नियम भी निर्धारित किए गए हैं उन्हीं के आधार पर रत्नों को धारण किया जाना चाहिए अन्यथा शुभ फ़ल प्राप्त नहीं होगें। हर ग्रह का संबध किसी ना किसी वार से होता है और प्रतिदिन क्रमानुसार वारों की होरा भी होती है। यदि रत्न धारण करना आवश्यक है तो ग्रह संबंधी होरा में पहना जा सकता है। जिस ग्रह का रत्न धारण करना है उस ग्रह के गोचर को देखना भी आवश्यक है। यदि रत्न संबंधित ग्रह गोचर में नीच राशि में और नवांंश में भी नीच राशि में ही स्थित है तब उसका रत्न धारण नहीं करना चाहिए।

यदि गोचर का कोई ग्रह नीच राशि से गुजर रहा है और उसका रत्न धारण करना आवश्यक है तब उस ग्रह के नवांश में उच्च का होने पर रत्न धारण किया जा सकता है क्योंकि कई बडे ग्रह ऐसे हैं जो काफ़ी समय तक एक ही राशि में रहते हैं। जैसे शनि ढाई साल तक एक राशि में रहता है, गुरु एक राशि में तकरीबन 13 महीने रहता है इसलिए इन ग्रहों का रत्न धारण करने के लिए ग्रहों की नवांश में स्थिति देखी जाती है। अगर ग्रह नवांंश में शुभ वर्गों में स्थित है तब भी उसका रत्न धारण किया जा सकता है।  

रत्न धारण करने के लिए कुछ बातों पर ध्यान देना जरुरी है कि रत्न कब और कैसे धारण किए जाए साथ ही कुंडली के अनुसार किन भावों के स्वामी है? यह भी देखा जाना जरुरी है। रत्न धारण करने में विभिन्न धारणाएंं है। जैसे कई ज्योतिषी कुंडली के जिस भाव की दशा चल रही होती है उसी का रत्न पहनने की सलाह दे देते हैं जबकि कई ज्योतिषी कुंडली के शुभ भावों के स्वामी का रत्न धारण करने की सलाह देते हैं। जैसे जन्म कुंडली के शुभ भाव का स्वामी अशुभ भाव में है या बलहीन है तब उसका रत्न पहनने की सलाह दी जाती है।

हमारे मतानुसार भी केन्द्र व त्रिकोण के स्वामी यदि कमजोर है तब उनके स्वामी ग्रह का रत्न शुभ समय में धारण करना चाहिए। कई बार केन्द्र व त्रिकोण के स्वामी एक अशुभ तो एक शुभ भाव के स्वामी हो जाते हैं। जैसे कुंभ लग्न में शनि लग्न व द्वादश भाव का स्वामी हो जाता है तब यह निश्चित करना मुश्किल होता है कि शनि का रत्न धारण किया जाए या नहीं। कई लोगों का मत है कि लग्न का स्वामी सदा शुभ होता है इसलिए रत्न धारण कर लेना चाहिए तो दूसरी ओर कुछ ज्योतिषियों का मत है कि पहले ये तय करें कि ग्रह की मूल त्रिकोण राशि किस भाव में पड रही है। यदि ग्रह की मूल त्रिकोण राशि शुभ भाव में पड रही है तो उसका रत्न धारण कर लेना चाहिए।

कुछ ज्योतिषियों का एक मत यह भी है कि यदि ग्रह की एक राशि शुभ भाव में और एक अशुभ भाव में पड रही है तब संबंधित ग्रह का उपरत्न धारण किया जा सकता है जिससे जातक को अनुकूल फ़ल ही मिलेगें। रत्नों को धारण करने से पूर्व उन्हें अभिमंत्रित करना जरुरी है। जिस ग्रह का रत्न पहनना है उसे उस ग्रह के वार में ही पहनना चाहिए। रत्न को शुक्ल पक्ष में ही धारण किया जाना चाहिए। अमावस्या के अगले दिन से शुक्ल पक्ष का आरंभ हो जाता है जो पूर्णिमा तक चलता है।

रत्न धारण करने के लिए संबधित ग्रह के वार का चयन करें। जैसे किसी को चंद्रमा के लिए मोती पहनना है तो वह मोती को शुक्ल पक्ष में सोमवार के दिन अथवा पूर्णिमा के दिन सुबह सूर्योदय से लेकर आने वाले एक घंटे के मध्य धारण करे। माना सूर्योदय सुबह 06:15 पर हो रहा है तब 06:15 से लेकर 07:15 के मध्य मोती पहन लेना चाहिए। लाकेट अथवा अंगूठी के रुप में यह रत्न धारण किए जाते हैं। धारण करने से पूर्व सुबह उठकर स्नानादि करने के बाद स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए। फ़िर रत्न का षोडपचार करते है उसके बाद जिस ग्रह का रत्न धारण करते हैं उस ग्रह के मंत्र का 108 बार जाप किया जाता है फ़िर मन में अच्छी धारणा रखते हुए रत्न धारण कर लेना चाहिए।

 

“दिव्य ज्योतिष ज्ञान” संस्थान से आप अपना मनचाहा रत्न ले सकते हैं जिसे संस्थान के योग्य आचार्यों द्वारा अभिमंत्रित करने के बाद ही दिया जाता है। इसके लिए आप निम्न पते पर संपर्क करें :- 

Email – acharyarajmishra@gmail.com

Contact – 9953331303

Whats-app – 9821533737

Landline – 011-46666900

Office Address – 198/37, Ramesh Market, East Of Kailash, New Delhi-110065

 

एक  मुखी रुद्राक्ष | One Mouth Rudraksha

rudraksha

पुराणों के अनुसार भगवान शिव के आंसू जब धरती पर गिए तब उन आंसुओं से रुद्राक्ष बने। उन आंसुओं में जो आंसू सबसे पहले धरती पर पडा उससे एक मुखी रुद्राक्ष का निर्माण हुआ। इस एक  मुखी रुद्राक्ष को भगवान शिव का ही रुप माना गया है। सभी रुद्राक्षों में एक मुखी रुद्राक्ष ही सबसे महत्वपूर्ण माना गया है। इसे धारण करने वाला साक्षात शिव को धारण करता है और धारण करते ही व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन देखा जा सकता है। व्यक्ति को मोक्ष, सुख तथा उन्नति मिलती है।

इस रुद्राक्ष का आकार ओंकार होता है जिसमें भगवान शिव स्वयं साक्षात रुप में विराजमान रहते हैं। धारण करने वाले को साक्षात शिव की शक्तियांं प्राप्त होती हैं। यह एक दुर्लभ रुद्राक्ष है जिसे कोई भाग्यवान ही पा सकता है। एक मुखी रुद्राक्ष दो आकारों में पाया जाता है। एक आकार काजू जैसा होता है और दूसरा गोल आकार में मिलता है। इन दोनों रुद्राक्षों में जो गोलाकार रुद्राक्ष है वह अत्यधिक दुर्लभ है जो नेपाल में पाया जाता है। संसार के कल्याण व परोपकारी वस्तुओं में एक मुखी रुद्राक्ष सर्वोपरि माना गया है।

जो इस रुद्राक्ष को धारण करता है उसके पास लक्ष्मी जी का वास सदा के लिए रहता है। एक मुखी रुद्राक्ष अत्यधिक शक्तिशाली होता है इसलिए गर्भवती महिलाओं तथा छोटे बच्चों को यह रुद्राक्ष धारण नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति इस रुद्राक्ष को धारण करता है उसके सभी पापों का अंत होता है और मन को शांति मिलती है, इन्द्रियांं वश में हो जाती है। जब कोई व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को काबू में कर लेता है तो वह ब्रह्म ज्ञान की ओर उसका रुझान बढ्ता है। संसार का सुख भोगते हुए अंत समय में शिवधाम में जाता है।  

यदि किसी को उच्च रक्तचाप की शिकायत रहती है तो एकमुखी रुद्राक्ष धारण करने से उच्च रक्तचाप धीरे-धीरे कम होता है और नियंत्रण में आने लगता है। उच्च रक्तचाप के लिए जो दवाईयांं खाई जाती है उनमें कमी आती है। जिन लोगों के विरुद्ध षडयंत्र ज्यादा रचे जाते हो उन्हें एक मुखी रुद्राक्ष अवश्य धारण करना चाहिए। इस रुद्राक्ष को धारण करने से षडयंत्रों से बचाव होता है।  

 

सुख, शांति, मोक्ष, धन, संपत्ति आदि को पाने के लिए आप एक मुखी रुद्राक्ष लेने के लिए हम से एक बार अवश्य संपर्क करें :-

 

Email – acharyarajmishra@gmail.com

Contact – 9953331303

Whats-app – 9821533737

Landline – 011-46666900

Office Address – 198/37, Ramesh Market, East Of Kailash, New Delhi-110065

 

गुरु अस्त | Combustion Of Jupiter

jupiter-sign1

जब  कोई ग्रह सूर्य से 11 अंश पहले या 11 अंश पीछे स्थित होता है तब उस ग्रह को अस्त कहा जाता है, वैसे हर ग्रह के अस्त होने की अंशात्मक दूरी भिन्न होती है। वर्ष 2016 में गुरु पश्चिम में रात में 08:20 बजे 9 सितंबर को अस्त होगा और 7 अक्तूबर को उदय होगा। गुरु को शुभ कार्यों के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है इसलिए गुरु के अस्त होने पर किसी भी प्रकार के शुभ कार्य नहीं किए जाते हैं।

गुरु के अस्त होने से तीन पूर्व गुरु का वार्धक्य काल माना जाता है और उदय होने के बाद भी तीन दिन तक गुरु की बाल्य अवस्था मानी जाती है जिससे इन दिनों में शुभ काम नहीं किए जाते हैं। गुरु अस्त होने को तारा डूबना भी कहते हैं। जब तारा डूब जाता है वैवाहिक कार्य नहीं कर सकते हैं और ना ही विवाह संबधी अन्य शुभ कार्य किए जाते हैं। लेकिन यदि विधवा स्त्री पुन: विवाह करना चाहती है तब उस पर तारा डूबने का दोष नहीं लगेगा।

 

तारा डूबने का प्रभाव – Effects Of Combust Jupiter

गुरु व शुक्र जब दोनो अस्त हो जाते हैं तब उसे तारा डूबना कहा जाता है। गुरु को धर्म व मोक्ष से जोडा गया है तो शुक्र को भोग विलास का कारक माना गया है। विवाह को भी शुभ व मांगलिक माना गया है क्योंकि विवाह भी शुभ मुहूर्त व मंत्रोच्चारण द्वारा संपन्न किया जाता है। विवाह दो व्यक्तियों को जोडने का एक माध्यम है जिन्हें सांसारिकता निभाते हुए आगे बढना है और भौतिक वस्तुओं का उपभोग करना है। इसलिए जब गुरु अस्त हो या शुक्र अस्त हो, तब दोनो ही स्थिति को तारा डूबना कहा जाता है। दोनों ही ग्रहों का विवाह संबधी कार्यों में उदय होना जरुरी है।

जिस समय गुरु अस्त होता है तब वह निर्बल हो जाता है और अपनी दशा/अन्तर्दशा में फ़ल नहीं दे पाता है। अस्त हुई उस समयावधि में कार्य रुक जाते हैं। यदि गुरु की प्रत्यन्तर दशा भी चल रही हो तब वह समय अच्छा नही कहा जा सकता है। यदि गुरु अशुभ भाव का स्वामी होकर अस्त है तब अच्छा होगा क्योंकि अशुभ फ़लों में कमी आ सकती है और व्यक्ति के लिए यह समय सम कहा जा सकता है अर्थात शुभ फ़ल नहीं मिल रहे हैं तो अशुभ फ़ल भी नहीं मिल पाएंगे।

गुरु के अस्त होने का परिणाम जन्म कुंडली में उसकी स्थिति को देखकर ही किया जाएगा। जन्म कुंडली में गुरु जिन भावों का स्वामी होगा तो उन भावों से संबधित फ़ल उतने नहीं मिल पाएंगे जितना कि व्यक्ति को मिलने चाहिए। इसी आधार पर हर राशि के लिए गुरु अस्त का प्रभाव भिन्न होगा। उदाहरण के लिए यदि गुरु किसी व्यक्ति की जन्म कुंडली में नवम भाव अर्थात भाग्य भाव का स्वामी है तब गुरु अस्त के समय भाग्य कुछ समय तक उसका साथ नहीं देगा।

गुरु को ज्ञान, शिक्षा,धर्म, विवाह, संतान, धन, संपत्ति, संतान,परोपकार आदि का कारक ग्रह माना जाता है तो गुरु अस्त का प्रभाव इन दोनों क्षेत्रों से संबधित व्यक्तियों के ऊपर अच्छा नहीं कहा जा सकता है। इसलिए इन क्षेत्रों से संबधित लोगों को एक महीने तक संभलकर रहना चाहिए। गुरु अस्त का प्रभाव धार्मिक गुरुओं पर भी विपरीत देखा जा सकता है। इस समय इन्हें भी संभलकर रहना चाहिए अन्यथा मान-सम्मान को ठेस पहुंच सकती है।  

गुरु के अस्त होने का प्रभाव भिन्न राशियों के लिए भिन्न ही होगा। बारह राशियों पर गुरु अस्त का क्या प्रभाव पडेगा उसका विवरण नीचे दिया जा रहा है जो निम्नलिखित है :-

 

मेष राशि – Aries Sign

मेष राशि वालों के लिए गुरु नवम व बारहवें भाव का स्वामी होता है। नवम भाव से गुरुजन, धर्म व भाग्य का आंकलन किया जाता है। गुरु अस्त होने पर इन सभी क्षेत्रों में कमी देखी जा सकती है। बारहवें भाव से मोक्ष, धार्मिक आश्रम अथवा धर्म संबधी कोई भी संस्था, खर्चा, अस्पताल आदि को देखा जाता है। गुरु अस्त होने पर इस भाव के शुभ फ़ल रुक जाएंगे लेकिन अशुभ फ़ल अपना प्रभाव दिखा सकते हैं।

 

वृष राशि – Taurus Sign

वृष राशि के लिए गुरु दो बुरे भावों का स्वामी होता है – आठवांं भाव व एकादश भाव। आठवां भाव शुभ नहीं माना जाता है लेकिन इस भाव से जो शुभ फ़ल देखे जाते हैं जैसे – जमीन से नीचे की वस्तुएंं, रिसर्च संबधी काम अथवा अचानक मिलने वाला धन भी यही से देखा जाता है। यदि गुरु अस्त हो जाता है तब इनसे संबंधित बातों में कमी आ सकती है। गुरु एकादश भाव का स्वामी होता है तो अस्त होने से बडे भाई/बहनों के साथ संबध बिगड जाते हैं। आय साधनों में रुकावट देखी जा सकती है।

 

मिथुन राशि – Gemini Sign

मिथुन राशि के लिए गुरु सप्तम व दशम भाव का स्वामी होता है। सप्तम भाव से साझेदारी व वैवाहिक संबधों को देखा जाता है और दशम भाव से व्यवसाय का आंकलन किया जाता है। गुरु अस्त के प्रभाव से वैवाहिक जीवन रुका सा महसूस हो सकता है। जो लोग साझेदारी में बिजनेस करते हैं तो बिजनेस ठहरा सा देखा जा सकता है अथवा बिजनेस को लेकर उनमें वैचारिक मतभेद इस समय उभर सकते हैं।

 

कर्क राशि – Cancer Sign

कर्क राशि के लिए गुरु छठे व नवम भाव का स्वामी होता है। छठे भाव से नौकरी, ॠण, मामा पक्ष के लोगों का विचार किया जाता है। गुरु अस्त होने से मामा पक्ष के लोगों से मतभेद हो सकता है। व्यक्ति नौकरी से संतुष्ट नही हो पाता है। आय कम तो व्यय ज्यादा हो सकते हैं अथवा कर्जा भी चढ सकता है।

नवम भाव से संबधित फ़लों में कमी आ सकती है। धार्मिक कार्यों से विमुख हो सकते हैं अथवा गुरु या गुरु समान व्यक्ति का अनादर भी कर सकते हैं।

 

सिंह राशि – Leo Sign

सिंह राशि के लिए गुरु पांंचवें व अष्टम भाव का स्वामी होता है। पंचम भाव से शिक्षा तथा संतान का आंकलन किया जाता है। गुरु अस्त होने से शिक्षार्थियों को शिक्षा क्षेत्र में और विद्यार्थियों को पढाई संबंधित रुकावटों का सामना करना पडता है। अष्टम भाव से गुप्त बातों का ध्यान किया जाता है। गुरु अस्त होने पर इस भाव से जो शुभ फ़ल देखे जाते हैं जैसे – जमीन से नीचे की चीजें, रिसर्च संबधी काम अथवा अचानक मिलने वाला धन भी यही से देखा जाता है तब गुरु अस्त के कारण इन सभी बातों से संबंधित फ़लों में कमी आएगी।

 

कन्या राशि – Virgo Sign

कन्या राशि के लिए गुरु चतुर्थ भाव तथा सप्तम भाव का स्वामी होता है। चतुर्थ भाव से घर का सुख, जमीन, मकान, माता आदि का विचार किया जाता है। गुरु अस्त होने पर इन सभी बातों में कमी आ सकती है। व्यक्ति की सुख की नींद हराम हो सकती है। सप्तम भाव से साझेदारी देखी जाती है, चाहे वह वैवाहिक साझेदारी हो अथवा व्यापार संबधी साझेदारी हो, इन दोनों में ही परेशानियांं देखी जा सकती हैं।

 

तुला राशि – Libra Sign

तुला राशि के लिए गुरु तीसरे व छठे भाव का स्वामी होता है। तीसरे भाव से छोटे भाई/बहन, व्यक्ति के शौक, पराक्रम व साहस तथा कला संबंधी काम देखे जाते हैं। यदि गुरु अस्त हो गया तो इन सभी में कमी देखी जा सकती है अथवा इनसे संबंधित व्यक्तियों से मन-मुटाव हो सकता है। व्यक्ति के पराक्रम में भी कमी देखी जा सकती है। छठे भाव से नौकरी आदि में असंतुष्टि देखी जाती है। गुरु छठे का स्वामी होकर ननिहाल पक्ष के लोगों से दूरी बना सकता है। कर्जा लेना पड सकता है अथवा बीमारी आदि में पैसा खर्च हो सकता है।

 

वृश्चिक राशि – Scorpio Sign

इस राशि के लिए गुरु दूसरे व पंचम भाव का स्वामी होता है। गुरु अस्त होने पर धनाभाव अर्थात धन का आगमन रुका सा देखा जा सकता है। वाणी की मिठास कम हो सकती है। कुटुम्ब के लोगों के साथ अनबन रह सकती है। वाणी में कटुता हो सकती है। पंचम भाव से संतान सुख आदि में कमी हो सकती है। विद्यार्थी वर्ग में असंतोष हो सकता है जिससे पढाई से विमुख रह सकता है।

 

धनु राशि – Sagittarius Sign

इस राशि के लिए गुरु लग्न व चतुर्थ भाव का स्वामी है जिससे व्यक्ति की जिन्दगी कुछ समय के लिए रुकी सी हो सकती है। लग्न का स्वामी अगर अस्त हो गया तो व्यक्ति सुस्त देखा जा सकता है अर्थात हर काम में आलस्य कर सकता है। चतुर्थ भाव से सुख देखा जा सकता है तो इस समय व्यक्ति सुख का अनुभव शायद ही कर पाए। माता से भी मनमुटाव हो सकता है तथा घर में कलह भी हो सकता है।

 

मकर राशि – Capricorn Sign

मकर राशि के लिए गुरु तीसरे व बारहवें भाव का स्वामी होता है और जब गुरु अस्त होता है तब व्यक्ति के साहस व पराक्रम में कमी आती है। कुछ समय के लिए व्यक्ति सुस्त हो सकता है और यदि उसके छोटे भाई-बहन भी हैं तब उनके साथ वैचारिक मतभेद उभर सकते हैं। बारहवें भाव का स्वामी होने से व्यक्ति के व्यय बढ सकते हैं। व्यक्ति अगर किसी धार्मिक संस्था से जुडा है तो वहांं से अरुचि हो सकती है।

 

कुम्भ राशि – Aquarius Sign

कुंभ राशि के लिए गुरु दूसरे व एकादश भाव का स्वामी होता है। दूसरे भाव से संचित धन को धन को देखा जाता है और एकादश भाव से अर्जित धन को देखा जाता है। यदि गुरु अस्त होता है तब धन का आगमन कम होने की संभावना बनती है। दूसरे भाव से कुटुम्ब भी देखा जाता है तो व्यक्ति कुटुम्ब से कटा सा रह सकता है। आंंखों से जुडी बिमारियांं उभर सकती है अथवा दाएं कंधे में कोई बीमारी भी उभर सकती है।

 

मीन राशि – Pisces Sign

मीन राशि के लिए गुरु लग्न व दशम भाव का स्वामी होता है। लग्न का स्वामी अगर अस्त होता है तब आत्मविश्वास में कमी देखी जा सकती है। व्यक्ति द्वारा किए प्रयासों में भी कमी आ सकती है और व्यक्ति में आलस्य का भाव भी देखा जा सकता है। दशम भाव से व्यक्ति का कार्यक्षेत्र देखा जाता है तो गुरु अस्त होने से कार्यक्षेत्र में मन कम लगता है। किसी कार्य में वृद्धि के स्थान पर कमी देखी जा सकती है।

 

यदि आप किसी तरह की ग्रह पीडा से पीडित हैं तो एक बार अवश्य संपर्क करें:- 

Email – acharyarajmishra@gmail.com

Contact – 9953331303

Whats-app – 9821533737

Landline – 011-46666900

Office Address – 198/37, Ramesh Market, East Of Kailash, New Delhi-110065

 

श्रीमहालक्ष्मी व्रत | Shri Mahalakshmi Vrat

mahalaxmi

भाद्रपद माह की शुक्ल अष्टमी से श्रीमहालक्ष्मी व्रत का आरंभ होता है। यह व्रत राधाष्टमी से आरंभ होता है। इस बार श्रीमहालक्ष्मी व्रत का आरंभ 9 सितंबर 2016 से होगा। इस व्रत में लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है।  इस दिन सुबह सवेरे उठकर स्नान आदि से निबटकर स्वच्छ वस्त्र धारण कर के लक्ष्मी जी का ध्यान किया जाता है। इस व्रत को करने के कुछ नियम हैं जिनका पालन किया जाता है। वैसे तो यह व्रत 16 दिन तक चलता है लेकिन जो 16 दिन तक यह व्रत नहीं रख पाता है तो इसे 3 दिन तक भी रख सकता है।

इस व्रत को आरंभ करने से पूर्व संकल्प लिया जाता है और संकल्प लेते समय एक मंत्र का उच्चारण भी किया जाता है :-

“करिष्यsहं महालक्ष्मि व्रतमें त्वत्परायणा |

तदविध्नेन में यातु समप्तिं स्वत्प्रसादत: ||”

उपरोक्त मंत्र का अर्थ है – हे देवी! मैं आपकी सेवा में तत्पर होकर आपके इस महाव्रत का पालन करुंगा/करुंगी। आपकी कृपा से यह व्रत बिना विघ्नों के पूर्ण हो जाएं ऐसी कृपा करें।

इस व्रत में कलाई पर एक डोरा बांंधा जाता है जिसमें 16 गांंठे लगी होती है। पूजन सामग्री के साथ नारियल तथा विभिन्न प्रकार के व्यंजन भी बनाए जाते हैं। नया सूत 16-16 की संख्या में 16 बार रखा जाता है। उसके बाद ऊपर लिखे मंत्र का उच्चारण किया जाता है।

जब व्रत पूरा हो जाता है तब वस्त्र से एक मंडप बनाया जाता है जिसमें लक्ष्मी जी की प्रतिमा रखी जाती है। लक्ष्मी जी को पंचामृत से स्नान कराया जाता है। इसके बाद सोलह तरह से उनका पूजन किया जाता है। पूजन समाप्त होने पर ब्राह्मणों को भोजन कराकर समर्थ्यानुसार दक्षिणा दी जाती है।

इस व्रत के उद्यापन में चार ब्राह्मण तथा 16 ब्राह्मणियों को भोजन कराकर यह व्रत पूर्ण होता है। 16 वें दिन इस व्रत का उद्यापन होता है और जो 16 दिन तक यह व्रत नही रख पाता है वह तीन तक रख सकता है जिसमें व्रत का पहला दिन तो पहला ही होगा लेकिन दूसरे व्रत को आठवें दिन के समान समझा जाएगा और व्रत के तीसरे दिन को 16वांं दिन समझकर फ़िर विधि विधान से उद्यापन कर देना चाहिए।

जो 16 वर्षों तक निरंतर इस व्रत को रखता है तो उसे विशेष फ़लों की प्राप्ति होती है। इस व्रत का एक नियम यह भी है कि व्रती को इसमें केवल दूध, फ़ल व मिठाई का ही सेवन करना है। अन्न से बनी वस्तुओं का सेवन करना इस व्रत में वर्जित माना गया है।

 

दधीची जयंती | Dadhichi Jayanti

dadhichi

प्रतिवर्ष भाद्रपद माह की शुक्ल अष्टमी को दधीची जयंती के रुप में मनाया जाता है। इस वर्ष यह जयंती 9 सितंबर दिन शुक्रवार 2016 को मनाई जाएगी। भारतीय पुराणों के अनुसार भारतवर्ष में अनेकों ॠषि-मुनियों ने यहांं जन्म लिया था और अपना सारा जीवन लोगों की भलाई में व्यतीत कर दिया। उन्हीं महान ॠषियों में एक दधीची ॠषि भी हुए हैं जिन्होंने लोगों की भलाई के लिए अपने शरीर को त्याग दिया।

दधीची जी के पिता भी एक महान ॠषि थे जिनका नाम अथर्वा था और उनकी माता का नाम शान्ति था। दधीची जी ने अपने संपूर्ण जीवन में भगवान शिव की कठोर भक्ति की थी और इसी कठोर भक्ति के कारण उनका शरीर भी अत्यंत कठोर बन गया था।

दधीची ॠषि अपनी हड्डियों के दान के कारण बहुत प्रसिद्ध हुए हैं। एक बार वृत्रासुर दैत्य ने अपने आतंक से इन्द्र को अपना आसन छोडने को मजबूर कर दिया और इन्द्र अपने इन्द्रासन को छोड देवताओं के साथ भागने को मजबूर हो गया। सारे देवता ब्रह्मा जी के पास जाकर अपनी व्यथा कहते हैं। सारी बात सुनने के बाद ब्रह्मा जी कहते हैं कि आप सभी महर्षि दधीची के पास जाओ और उनसे विनती करों कि वह वृत्रासुर को मारकर सभी की भलाई करें।

वृत्रासुर दैत्य पर देवताओं के किसी भी अस्त्र-शस्त्र का प्रभाव नहीं पडता है जिससे वह देवताओं पर हावी हो जाता है। ब्रह्मा जी देवताओं को कहते हैं कि आप सभी दधीची ॠषि के पास जाएं और विनती करें कि वह अपनी अस्थियों का दान वृत्रासुर को मारने के लिए कर दें। दधीची जी ने कठोर तपस्या कर अपनी अस्थियों को अत्यधिक कठोर बना लिया था इसलिए उनकी अस्थियों से बने अस्त्र से ही वृत्रासुर को मारा जा सकता है।

ब्रह्मा जी की बात सुन इन्द्र देवताओं के साथ दधीची ॠषि के पास जाकर अनुनय-विनय करते हैं कि वृत्रासुर को मारने के लिए वह अपनी अस्थियों का दान कर दें। लोक कल्याण को ध्यान में रखते हुए दधीची जी अपनी अस्थियों के दान के लिए सहर्ष ही तैयार हो जाते हैं। दधीची की अस्थियों में ब्रह्म तेज था जिससे अस्त्र बनाकर वृत्रासुर को मारा जा सकता था।

दधीची ने अपने शरीर को त्याग दिया जिससे उनकी अस्थियों से वज्र का निर्माण किया गया और इस वज्र से इन्द्र ने वृत्रासुर का वध कर फ़िर से अपने इन्द्रासन को प्राप्त किया। साथ ही महान ॠषि दधीची के त्याग से ही तीनों लोकों को वृत्रासुर के आतंक से मुक्त कराया गया।  

 

 

 

  

 

राधाष्टमी व्रत | Radhashtami Vrat

radha_krishna_govardhan_rad

राधा जी को भगवान कृष्ण की प्रियतमा माना गया है, जहांं कृष्ण वहांं राधा का नाम अवश्य लिया जाता है। राधा जी का जन्म जिस तिथि को हुआ उसे राधाष्टमी के रुप में मनाया जाता है। राधा जी का जन्म भाद्रपद माह की शुक्ल अष्टमी को हुआ था। इसलिए हर वर्ष इस दिन को राधा जी के जन्मदिवस के रुप में व्रत व पूजा कर के मनाया जाता है। इस वर्ष 9 सितंबर, दिन शुक्रवार, 2016 को राधाष्टमी का व्रत रखा जाएगा।  

राधा जी को रावल के वृषभानु की पुत्री माना जाता है और उनकी माता का नाम कीर्ति बताया जाता है। राधा जी के जन्म के विषय में भी मतभेद हैं। एक मतानुसार वृषभानु जब यज्ञ के लिए भूमि साफ़ कर रहे थे तो उन्हें एक कन्या मिली जिसे वृषभानु जी ने अपनी पुत्री के रुप में पाल-पोसकर बडा किया। एक अन्य मतानुसार वृषभानु जी एक बार एक सरोवर किनारे टहल रहे थे तभी एक कमल के फ़ूल पर उनकी नजर पडी जिस पर एक छोटी बालिका लेटी हुई थी जिसे वृषभानु गोप ने अपनी बच्ची के रुप में पाला।

इस दिन सुबह सवेरे उठकर स्नानादि से निबटकर, स्वच्छ वस्त्र धारण कर राधा जी की पूजा आराधना की जाती है। कृष्ण भगवान के बारे में कहा गया है कि जो राधा जी को याद करता है अथवा उनकी पूजा आराधना करता है तो भगवान उनसे स्वत: ही प्रसन्न हो जाते हैं।

इस दिन को राधा जी के जन्मोत्सव के रुप में मनाया जाता है। इस दिन राधा जी के साथ कृष्ण जी की भी विशेष पूजा की जाती है। राधा जी की प्रतिमा अथवा मूर्ति को पंचामृत से स्नान कराकर पूजा अर्चना की जाती है। इस व्रत को जो मनुष्य करता है उसे लोक-परलोक दोनो धामों में सुख की प्राप्ति होती है।

मान्यता है कि भगवान कृष्ण की 16,000 गोपियांं थी लेकिन राधा उनकी सबसे प्रिय गोपी थी जि्सका जन्म उत्तर प्रदेश में यमुना नदी के किनारे बसे रावल ग्राम में हुआ था। इसलिए प्रतिवर्ष राधाष्टमी को यहांं उत्सव रुप में मनाया जाता है। यहांं कई प्रकार के रंगारंग कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। रास लीलाओ के आयोजन के साथ भजन-कीर्तन भी किया जाता है।

वृंदावन में गोस्वामी समुदाय के लोग इस दिन को त्यौहार के रुप में मनाते हैं। वृंदावन के “राधा बल्लभ मंदिर” में बहुत बडा उत्सव आयोजित किया जाता है जहांं गोस्वामी समुदाय के लोग झूम-झूमकर नाचते हैं। वहां उपस्थित लोग उन पर हल्दी मिली दही को उडेलते हैं। बरसाना गांंव ब्रह्मा पर्वत के ढलाऊ भाग में बसा हुआ है इसलिए इस दिन पर्वत के ऊंंचे भाग पर बने गहवर वन की परिक्रमा भी की जाती है।

राधा जी की आठ सखियांं मुख्य मानी जाती हैं जिनके आधार पर वृंदावन का अष्टसखी मंदिर बना है। इस दिन इस मंदिर में भी राधाष्टमी को उत्सव के रुप में मनाया जाता है।  

 

जीवन की कोई समस्या ऐसी नहीं जिसका निवारण ना हो पाए। आपकी निराशा और हताशा को दूर करने के लिए एक बार अवश्य संपर्क करें।

Email – acharyarajmishra@gmail.com

Contact – 9953331303

Whats-app – 9821533737

Landline – 011-46666900

Office Address – 198/37, Ramesh Market, East Of Kailash, New Delhi-110065

 

मुक्ताभरण संतान सप्तमी व्रत | Muktabharan Santan Saptami Vrat

group-of-children

भाद्रपद माह की शुक्ल सप्तमी को मुक्ताभरण संतान सप्तमी का व्रत रखा जाता है। इस दिन स्त्रियांं अपनी संतान की लंबी आयु व अच्छे स्वास्थ्य के लिए इस व्रत को रखती हैं। इस वर्ष यह व्रत 8 सितंबर, दिन गुरुवार, 2016 को मनाया जाएगा।  

सुबह सवेरे स्नानादि से निबटकर स्वच्छ वस्त्र धारण कर पूजा करते हैं। इस दिन शिव-पार्वती की पूजा की जाती है और प्रार्थना की जाती है कि उनकी संतान दीर्घायु प्राप्त करे। शिव भगवान को कलावा अर्पित करते हैं और कथा सुनने के समय इस कलावे को हाथ में बांध लेते हैं।

संध्या समय में खीर, पुए बनाकर नेवैद्य अर्पित किया जाता है। दिन भर निराहार रहकर संध्या समय में भोजन करते हैं।

पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार भगवान श्रीकृष्ण जी, युधिष्ठिर को बताते हैं कि लोमेश ॠषि एक बार मथुरा आए तब मेरे माता-पिता, देवकी व वासुदेव जी ने उनका आदर-सत्कार किया। भक्तिपूर्ण भाव से की गई उनकी सेवा से प्रसन्न होकर लोमेश ॠषि उन्हें कंस द्वारा मारी गई संतान के शोक से उबरने के लिए संतान सप्तमी व्रत करने को कहते हैं। उसी समय से इस व्रत को संतान की रक्षा के लिए किया जाने लगा।                                                                                                                   

जीवन की कोई समस्या ऐसी नहीं जिसका निवारण ना हो पाए। आपकी निराशा और हताशा को दूर करने के लिए एक बार अवश्य संपर्क करें।

Email – acharyarajmishra@gmail.com

Contact – 9953331303

Whats-app – 9821533737

Landline – 011-46666900

Office Address – 198/37, Ramesh Market, East Of Kailash, New Delhi-110065

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                    

 

सूर्य षष्ठी व्रत | Surya Shashti

Surya Dev Images

सूर्य षष्ठी व्रत अथवा हल षष्ठी व्रत भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है। इस बार यह व्रत 7 सितंबर 2016 को बुधवार के दिन मनाया जाएगा। माना जाता है कि इस दिन श्री कृष्ण भगवान के बडे भाई बलराम जी का जन्म हुआ था। इस व्रत में हल से जुता भोजन नहीं खाते हैं और ना गाय का दूध व घी का उपयोग ही करते हैं। बलराम जी का शस्त्र हल माना गया है इसलिए इसे “हल षष्ठी” और “हरछठ” भी कहा गया है।

जो स्त्रियांं इस व्रत को पूरे विधि विधान से करती हैं उनकी संतान स्वस्थ व निरोगी रहती हैं। जो दंपत्ति नि:संतान हैं तो इस व्रत को रखने से संतान की प्राप्ति होती है। इस दिन भगवान सूर्य की पूजा करते हैं और सूर्य गायत्री मंत्र का जाप भी करते हैं।

इस व्रत को रखने से पूर्व सुबह उठकर पास ही की नदी, नहर अथवा तालाब आदि में स्नान किया जाता है। स्नान करने के बाद सूर्य को अर्ध्य दिया जाता है। भगवान सूर्य का ध्यान करते हुए व्रत का पालन किया जाता है। भगवान सूर्य का ध्यान करते हुए सूर्य के मंत्र “ऊँ घृणि सूर्याय नम:” अथवा “ऊँ सूर्याय नम:” का 108 बार जाप करना चाहिए। इसके अतिरिक्त “आदित्य ह्रदय स्तोत्र” का पाठ भी सुबह स्नानादि के बाद किया जा सकता है।

सूर्य को आत्मा तथा जीवन शक्ति का द्योतक माना गया है इसलिए इस व्रत के प्रभाव से आत्मा शुद्ध होती है और जीवन शक्ति का संचार होता है। व्यक्ति निरोगी रहकर जीवनयापन करता है। सूर्य को हड्डियों का कारक ग्रह माना जाता है तो इस व्रत के प्रभाव से व्यक्ति की हड्डियांं मजबूत रहती है।

जिन व्यक्तियों की अपने पिता से अनबन रहती है उन्हें इस व्रत को जरुर करना चाहिए ताकि पिता-पुत्र में प्रेम बना रहे।

 

मंत्रों द्वारा ग्रह शांति के लिए संपर्क करें :- 

Email – acharyarajmishra@gmail.com

Contact – 9953331303

Whats-app – 9821533737

Landline – 011-46666900

Office Address – 198/37, Ramesh Market, East Of Kailash, New Delhi-110065

 

 

 

ॠषि पंचमी | Rishi Panchami

Rishi Panchami 2015 Date

ॠषि पंचमी का व्रत भाद्रपद माह की शुक्ल पंचमी को रखा जाता है। इस वर्ष यह व्रत 6 जुलाई 2016 के दिन रखा जाएगा।  इस व्रत में सप्तॠषियों के पूजन व व्रत रखने का महत्व है। इस व्रत को पहले पुरुष ही रखते थे लेकिन समय के साथ अब इस व्रत को स्त्रियांं व कन्याएंं भी रखने लगी। इस व्रत को रखने वाले व्यक्ति को सभी पापों से छुटकारा मिल जाता है।

ॠषि पंचमी के दिन सुबह स्नानादि कर के घर को स्वच्छ करना चाहिए। फ़िर एक स्वच्छ स्थान पर चौकोर मंडल हल्दी, कुंकुम, रोली आदि से बनाया जाता है। इस चौकोर मंडल पर सप्त ॠषियों की स्थापना की जाती है। इसके बाद गंध, धूप, पुष्प, नैवेद्य आदि से पूजन कर निम्न मंत्र का जाप करते हैं।

“कश्यपोत्रिर्भरद्वाजो विश्वामित्रोथ गौतम:|

जगदग्निर्वसिष्ठश्च सप्तैते ॠषय: स्मृताः||

दहन्तु पापं सर्वगृह्नन्त्वर्ध्यं नमो नम: ||

इस मंत्र को बोलते हुए अर्ध्य देते हैं। इस व्रत में ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है। फ़लाहार में धरती पर उगने वाले खाद्य पदार्थ को नहीं खाया जाता। इस व्रत को सात वर्ष रखने के बाद आठवें वर्ष में सप्तवर्षिकी पीत वर्ण की मूर्ति का ब्राह्मण भोजन के बाद विसर्जन किया जाता है।

 

ॠषि पंचमी की व्रत कथा – Story Of Rishi Panchami

विदर्भ देश में उत्तंक नामक सदाचारी ब्राह्मण रहता था और सुशीला नाम की उसकी एक स्त्री थी जो पतिव्रता थी। उनकी दो संताने थी एक कन्या और एक पुत्र। पुत्री के विवाहयोग्य होने पर उसका विवाह एक सुशील लडके के साथ कर दिया गया लेकिन भाग्य की मारी कन्या विवाह के कुछ समय बाद ही विधवा हो गई। पुत्री के दुख से दुखी माता-पिता अपनी पुत्री के साथ गंगा तट पर कुटिया बनाकर रहने लगे।

एक दिन की बात है कि वह ब्राह्मण कन्या अपनी कुटिया में सो रही थी तो उसका शरीर कीडो से भर गया तो उसने मांं को बुलाकर सारी बात बताई। मांं ने इस बात का जिक्र अपने पति उत्तंक से किया और पूछा कि हे प्राणनाथ ! मेरी साध्वी पुत्री की इस गति का क्या कारण है? उत्तंक ॠषि ने ध्यान लगाकर इस बात का पता किया कि क्यूंं उनकी बेटी का यह हाल हुआ?

उत्तंक ॠषि ने जब ध्यान लगाया तो पता चला कि पूर्व जन्म में भी उनकी पुत्री ब्राह्मणी थी और जब यह रजस्वला हुई तो तभी इसने बर्तनों को छू लिया था। इस जन्म में भी इसने दूसरों की देखा देखी ॠषि पंचमी का व्रत नहीं किया जिसके परिणामस्स्वरुप इसके शरीर में यह कीडे पड गए। धर्म शास्त्रों के अनुसार स्त्री रजस्वला होने पर पहले दिन चांडालिनी, दूसरे दिन धर्मघातिनी और तीसरे दिन धोबिन के समान होने पर वह अशुद्ध मानी जाती है। चौथे दिन स्नान कर यह शुद्ध होती है।

पिता कहते हैं कि यदि यह अब शुद्ध होकर ॠषि पंचमी का व्रत करती है तो उसके सारे दुखों का अंत होगा। इस व्रत के प्रभाव से अगले जन्म में भी यह अटल सौभाग्य पाएगी। सभी प्रकार के सुखों से संपन्न रहेगी।

इस प्रकार जो भी पुरुष, स्त्री अथवा कन्या इस व्रत को विधि विधान से करती है तो उसके समस्त पापों का सहज ही निवारण हो जाता है।

 

Contact  us for any query and their Solutions

Email – acharyarajmishra@gmail.com

Contact – 9953331303

Whats-app – 9821533737

Landline – 011-46666900

Office Address – 198/37, Ramesh Market, East Of Kailash, New Delhi-110065

 

लिंगाष्टकम | Lingashtakam

shiva-01

ब्रह्ममुरारिसुरार्चित लिंगं निर्मलभाषितशोभित लिंग |

जन्मजदुःखविनाशक लिंग तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगं ।।1।।

देवमुनिप्रवरार्चित लिंगं, कामदहं करुणाकर लिंगं |

रावणदर्पविनाशन लिंगं तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगं ।।2।।

सर्वसुगंन्धिसुलेपित लिंगं, बुद्धिविवर्धनकारण लिंगं |

सिद्धसुरासुरवन्दित लिंगं, तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगं ।।3।।

कनकमहामणिभूषित लिंगं, फणिपतिवेष्टितशोभित लिंगं |

दक्षसुयज्ञविनाशन लिंगं, तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगं ।।4।।

कुंकुमचंदनलेपित लिंगं, पंङ्कजहारसुशोभित लिंगं |

संञ्चितपापविनाशिन लिंगं, तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगं ।।5।।

देवगणार्चितसेवित लिंग, भवैर्भक्तिभिरेवच लिंगं |

दिनकरकोटिप्रभाकर लिंगं, तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगं ।।6।।

अष्टदलोपरिवेष्टित लिंगं, सर्वसमुद्भवकारण लिंगं |

अष्टदरिद्रविनाशित लिंगं, तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगं ।।7।।

सुरगुरूसुरवरपूजित लिंगं, सुरवनपुष्पसदार्चित लिंगं |

परात्परं परमात्मक लिंगं, ततप्रणमामि सदाशिव लिंगं ।।8।।

।। इति लिंगाष्टकं सम्पूर्णम् ।।

 

भगवान शंकर की आराधना करने के लिए लिंगाष्टकम का पाठ प्रतिदिन करने से व्यक्ति की सभी इच्छाएंं व मनोकामनाएंं पूर्ण होती हैं। शंकर भगवान को प्रसन्न करने का यह उत्तम पाठ है।

किसी भी समस्या के समाधान के लिए संपर्क करें :- 

Email – acharyarajmishra@gmail.com

Contact – 9953331303

Whats-app – 9821533737

Landline – 011-46666900

Office Address – 198/37, Ramesh Market, East Of Kailash, New Delhi-110065